"कभी मेरी भावनाओं का ध्यान नहीं रखते। जब देखो तब बस उन्हें माँ जी की ही चिंता रहती है। मैं भी अब वापस नहीं जाना चाहती वहाँ। रहे अपनी माँ के साथ और खूब सेवा करें।"
ससुराल से लड़-झगड़कर मायके आयी बेटी की भुनभुनाहट विभा जी बड़ी देर से सुन रही थी। बात कुछ खास नहीं थी। वही घर-गृहस्थी के छोटे-मोटे मनमुटाव और खींचतान।
जब बेटी अपनी भड़ास निकालकर चुप हुई तब विभा जी ने बोलना शुरू किया।
"हम जब सब्जी लेने जाते हैं तो जितनी सब्जी चाहिए उसके लिए क्या करते हैं?"
उनके इस अजीबो गरीब सवाल पर बेटी अचकचा गयी-
"तराजू में तुलवाते हैं, और क्या।"
"और सही तोल के लिए क्या करते हैं?" विभा जी ने फिर एक अटपटा प्रश्न किया।
"एक पलड़े में सब्जी तो दूसरे पलड़े में जितनी चाहिए उतने का बाट या वजन रखते हैं।" बेटी झुंझलाकर बोली।
"अगर हमें एक किलो सब्जी चाहिए तो क्या दो सौ ग्राम का बाट रखने से मिल जाएगी?" विभा जी ने एक और प्रश्न किया बेटी से।
"कैसी बचकानी बात कर रही हो माँ, दो सौ ग्राम के बाट रखने से भला एक किलो सब्जी कैसे तुलेगी?" बेटी अब सचमुच झुंझला गयी थी।
"तो फिर बेटी सम्मान और प्यार के सौ ग्राम बाट रखकर तुम किलो भर की आशा कैसे कर सकती हो?" विभा जी गम्भीर स्वर में बोली।
"क्या मतलब...." बेटी हकबका गयी।
"मतलब ये की रिश्ते भी तराजू की तरह होते हैं। दोनो पलड़े संतुलित तभी होंगे जब वजन बराबर होगा" विभा जी बोली।
बेटी उनका मुँह देखने लगी चुप होकर।
"तुम सास को सम्मान और माँ समान प्रेम नहीं देती, पति को सहयोग नहीं करती और चाहती हो तो घर में सब तुम्हे पलकों पर बिठायें, खूब सम्मान दें, तो ऐसा नहीं होता।"
विभा जी ने समझाया तो बेटी का चेहरा उतर गया।
"जितना प्रेम, सम्मान ससुराल वालों से चाहती हो पहले अपने पलड़े में उनके लिए उतना रखो। तभी रिश्तों का तराजू संतुलित रहेगा।"
बेटी की आँखे भर आयी। अपनी गलती वो समझ चुकी थी।
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